संत कबीर दास के 100 दोहे जो ज़िन्दगी बदल दे (हिंदीअर्थ सहित )

संत कबीर दास के 100 दोहे जो ज़िन्दगी बदल दे (हिंदीअर्थ सहित )

दोस्तों आप सभी का हमारे blog पर स्वागत है। दोस्तों आज हम कबीर दास के दोहे के बारे में बताने वाले है। दोस्तों यह दोहे किसी भी व्यक्ति के ज़िन्दगी बदलने के लिए काफी है। दोस्तों दोहों के साथ साथ हम आपको उन दोहो के अर्थ के बारे में भी बताएंगे ताकि आपको सुविधा हो। आमतौर यह दोहो को समझना काफी है मुश्किल होता है इसलिए हमने आपको इनके अर्थ भी उपलब्ध कराये है। दोस्तों मुझे उम्मीद है की आप इस पोस्ट को पूरा पढ़ेंगे और इन्हे समझकर अपने ज़िन्दगी में भी उतारेंगे। 

कबीर दास  का संझिप्त जीवन परिचय 


कबीरदास जी का जन्म लगभग 14वी और 15वी शताब्दी के मध्य में माना जाता है। इनका जन्मस्थान काशी माना जाता है। उनके गुरु का नाम स्वामी रामानंद था। उन्होंने स्वामी रामानंद को अपना गुरु बनाने के लिए बहुत प्रयत्न किये तब जाकर स्वामी रामानन्द ने कबीर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया। कबीर निराकार ब्रहम के उपासक थे। उनका मानना था की भगवन किसी मूर्ति में नहीं बल्कि हर जगह विद्यमान है। उन्होने अपने जीवनकाल तरह तरह के कर्म कांड जो की हिन्दुओं और मुस्लिमो द्वारा की जाती थी उनकी आलोचना की। कबीर की भाषा सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी मानी जाती है। उन्होंने एक बहुत ही लोकप्रिय बीजक ग्रन्थ की रचना की जिसके तीन प्रमुख भाग है  -

  • सखी 

  • सबद 

  • रमैनी  


कबीर के दोहे 


 

1.बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।


अर्थ :
जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है.

2.पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।


अर्थ :
बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके. कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा.

3.साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।


अर्थ :
इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे.

4.तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है. यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !

5.धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।


अर्थ :
मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है. अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !

6.माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।


अर्थ :
कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो.

7.जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।


अर्थ :
सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का.

8.जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।


अर्थ :
सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का.

9.दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।


अर्थ :
यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत.

10.जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।


अर्थ :
जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.

11.बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।


अर्थ :
यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है.

12.अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।


अर्थ :
न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है.

13.निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।


अर्थ :
जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है.

14.निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।


अर्थ :
जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है.

15.दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।


अर्थ :
इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं
लगता.

16.कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.


अर्थ :
इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

17.हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

18.कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन.
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन.


अर्थ :
कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया. कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है.

19.कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई.
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई.


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए. बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।

20.जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई.
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई.


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है. पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है.

21.कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस.
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस.


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है. मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले.

22.पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात.
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात.


अर्थ :
कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी.

23.हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास.
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास.


अर्थ :
यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं. सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है. —

24.जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।


अर्थ :
इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा. जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा.

25.झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद.
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद.


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है.

26.ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस.
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस.


अर्थ :
कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता. —

27.संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।


अर्थ :
सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता. चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता.

28.कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ.
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ.


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है.

29.तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई.
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ.


अर्थ :
शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं.

30.कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय.
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय.


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए. सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा.

31.माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर.
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर .


अर्थ :
कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन. शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं.

32.मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई.
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई.


अर्थ :
मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा.

33.दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥


अर्थ :
कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों !

34.साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥


अर्थ :
कबीर दस जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमे बस मेरा गुजरा चल जाये , मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।

35.काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी,बहुरि करेगा कब ॥


अर्थ :
कबीर दास जी समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और और जो आज करना है उसे अभी करो , कुछ ही समय में जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे !!

36.लूट सके तो लूट ले,राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछ्ताओगे,प्राण जाहि जब छूट ॥


अर्थ :
कबीर दस जी कहते हैं कि अभी राम नाम की लूट मची है , अभी तुम भगवान् का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर, अर्थात मर जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब राम भगवान् की पूजा क्यों नहीं की ।

37.माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख ॥


अर्थ :
माँगना मरने के बराबर है ,इसलिए किसी से भीख मत मांगो . सतगुरु कहते हैं कि मांगने से मर जाना बेहतर है , अर्थात पुरुषार्थ से स्वयं चीजों को प्राप्त करो , उसे किसी से मांगो मत।

38.आछे दिन पाछे गए, हरि से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गयी खेत ॥


अर्थ :
सुख के समय में भगवान् का स्मरण नहीं किया, तो अब पछताने का क्या फ़ायदा। जब खेत पर ध्यान देना चाहिए था, तब तो दिया नहीं, अब अगर चिड़िया सारे बीज खा चुकी हैं, तो खेद से क्या होगा।

39.आपा तजे हरि भजे, नख सिख तजे विकार ।
सब जीवन से निर्भैर रहे, साधू मता है सार ॥


अर्थ :
जो व्यक्ति अपने अहम् को छोड़कर, भगवान् कि उपासना करता है, अपने दोषों को त्याग देता है, और किसी जीव-जंतु से बैर नहीं रखता, वह व्यक्ति साधू के सामान और बुद्धिमान होता है।

40.आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥


अर्थ :
अगर गाली के जवाब में गाली दी जाए, तो गालियों की संख्या एक से बढ़कर अनेक हो जाती है। कबीर कहते हैं कि यदि गाली को पलटा न जाय, गाली का जवाब गाली से न दिया जाय, तो वह गाली एक ही रहेगी ।

41.एसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥


अर्थ :
अगर अपने भाषा से अहं को हटा दिया जाए, तो दूसरों के साथ खुद को भी शान्ति मिलती है।

 
42.बाहर क्या दिखलाये , अंतर जपिए राम |
कहा काज संसार से , तुझे धानी से काम ||अर्थ :
बाहरी दिखावे कि जगह, मन ही मन में राम का नाम जपना चाहिए। संसार कि चिंता छोड़कर, संसार चलाने वाले पर ध्यान देना चाहिए।

43.बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥अर्थ :
खजूर का पेड़ न तो राही को छाया देता है, और न ही उसका फल आसानी से पाया जा सकता है। इसी तरह, उस शक्ति का कोई महत्व नहीं है, जो दूसरों के काम नहीं आ सकती।

44.भगती बिगाड़ी कामिया , इन्द्री करे सवादी |
हीरा खोया हाथ थाई , जनम गवाया बाड़ी ||अर्थ :
इच्छाओं और आकाँक्षाओं में डूबे लोगों ने भक्ति को बिगाड़ कर केवल इन्द्रियों की संतुष्टि को लक्ष्य मान लिया है। इन लोगों ने इस मनुष्य जीवन का दुरूपयोग किया है, जैसे कोई हीरा खो दे।

45.भगती बिगाड़ी कामिया , इन्द्री करे सवादी |
हीरा खोया हाथ थाई , जनम गवाया बाड़ी ||अर्थ :
इच्छाओं और आकाँक्षाओं में डूबे लोगों ने भक्ति को बिगाड़ कर केवल इन्द्रियों की संतुष्टि को लक्ष्य मान लिया है। इन लोगों ने इस मनुष्य जीवन का दुरूपयोग किया है, जैसे कोई हीरा खो दे।

46.बूँद पड़ी जो समुंदर में, जानत है सब कोय ।
समुंदर समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥अर्थ :
एक बूँद का सागर में समाना - यह समझना आसान है, लेकिन सागर का बूँद में समाना - इसकी कल्पना करना बहुत कठिन है। इसी तरह, सिर्फ भक्त भगवान् में लीन नहीं होते, कभी-कभी भगवान् भी भक्त में समा सकते हैं।

47.चली जो पुतली लौन की, थाह सिंधु का लेन ।
आपहू गली पानी भई, उलटी काहे को बैन ॥अर्थ :
जब नमक सागर की गहराई मापने गया, तो खुद ही उस खारे पानी मे मिल गया। इस उदाहरण से कबीर भगवान् की विशालता को दर्शाते हैं। जब कोई सच्ची आस्था से भगवान् खोजता है, तो वह खुद ही उसमे समा जाता है।

48.चिड़िया चोंच भरि ले गई, घट्यो न नदी को नीर ।
दान दिये धन ना घटे, कहि गये दास कबीर ॥अर्थ :
जिस तरह चिड़िया के चोंच भर पानी ले जाने से नदी के जल में कोई कमी नहीं आती, उसी तरह जरूरतमंद को दान देने से किसी के धन में कोई कमी नहीं आती ।

49.चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए ।
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए ॥अर्थ :
चिंता एक ऐसी चोर है जो सेहत चुरा लेती है। चिंता और व्याकुलता से पीड़ित व्यक्ति का कोई इलाज नहीं कर सकता।

50.दया भाव ह्रदय नहीं , ज्ञान थके बेहद |
ते नर नरक ही जायेंगे , सुनी सुनी साखी शब्द ||अर्थ :
कुछ लोगों में न दया होती है और न हमदर्दी, मगर वे दूसरों को उपदेश देने में माहिर होते हैं। ऐसे व्यक्ति, और उनका निरर्थक ज्ञान नर्क को प्राप्त होता है।

51.दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय ॥अर्थ :
दुःख में परमात्मा को सभी याद करते हैं, परन्तु सुख में कोई नहीं। यदि सुख में भी परमात्मा को याद रखते, तो दुःख होता ही नहीं।

52.गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥अर्थ :
यदि गुरु और ईश्वर, दोनों साथ में खड़े हों, तो किसे पहले प्रणाम करना चाहिए? कबीर कहते हैं, गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर है, क्योंकि गुरु की शिक्षा के कारण ही भगवान् के दर्शन होते हैं

53.ज्ञानी मूल गँवाईया, आप भये करता ।
ताते संसारी भला, जो सदा रहे डरता ॥अर्थ :
जो विद्वान अहंकार में पड़कर खुद को ही सर्वोच्च मानता है, वह कहीं का नहीं रहता। उससे तो वह संसारी आदमी बेहतर है, जिसके मन में भगवान् का दर तो है।

54.हरि रस पीया जानिये, कबहू न जाए खुमार ।
मैमता घूमत फिरे, नाही तन की सार ॥अर्थ :
जिस व्यक्ति ने परमात्मा के अमृत को चख लिया हो, वह सारा समय उसी नशे में मस्त रहता है। उसे न अपने शरीर कि, न ही रूप और भेष कि चिंता रहती है।

55.जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥अर्थ :
शुद्ध हृदय के साथ भगवान् को याद करने से सारे पाप ऐसे नष्ट हो जाते हैं, जैसे कि सूखी घास पर आग की चिंगारी पड़ी हो।

56.जग में बैरी कोई नहीं , जो मन शीतल होय |
यह आपा तो डाल दे , दया करे सब कोए ||अर्थ :
आपके मन में यदि शीतलता है, अर्थात दया और सहानुभूति है, तो संसार में आपकी किसी से शत्रुता नहीं हो सकती। इसलिए अपने अहंकार को निकाल बाहर करें, और आप अपने प्रति दूसरों में भी समवेदना पाएंगे।

57.जहाँ दया तहाँ धर्म है,जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥अर्थ :
जहाँ दया-भाव है, वहाँ धर्म-व्यवहार होता है। जहाँ लालच और क्रोध है वहाँ पाप बसता है। जहाँ क्षमा और सहानुभूति होती है, वहाँ भगवान् रहते हैं।

58.जहाँ न जाको गुन लहै, तहाँ न ताको ठाँव ।
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गाँव ॥अर्थ :
जहाँ पर आपकी योग्यता और गुणों का प्रयोग नहीं होता, वहाँ आपका रहना बेकार है। उदाहरण के लिए, ऐसी जगह धोबी का क्या काम, जहाँ पर लोगों के पास पहनने को कपड़े नहीं हैं।

59.दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय ॥अर्थ :
दुःख में परमात्मा को सभी याद करते हैं, परन्तु सुख में कोई नहीं। यदि सुख में भी परमात्मा को याद रखते, तो दुःख होता ही नहीं।

60.जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ॥अर्थ :
शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं। अर्थात, जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।

61.ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा साईं तुझमे है, तू जाग सके तो जाग ॥अर्थ :
जिस तरह तिल में तेल होता है, और पत्थरों से आग उत्पन्न हो सकती है, उसी प्रकार भगवान् भी आपके अंतर्गत हैं। उन्हें जगाने की शक्ति पैदा करने की आवश्यकता है।

62.कबीर क्षुधा कूकरी, करत भजन में भंग ।
वाकूं टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग ॥अर्थ :
संत कबीरदास कहते हैं कि भूख ऐसी कुतिया के समान होती है, जो कि भजन साधना में बाधा डालती है। इसे शांत करने के लिए अगर समय पर रोटी का टुकडा दे दिया जाए तो फिर संतोष और शांति के साथ ईश्वर का स्मरण हो सकता है।

63.कबीरा गर्व ना कीजिये, ऊंचा देख आवास ।
काल पड़ो भू लेटना, ऊपर जमसी घास ॥अर्थ :
अपना शक्ति और संपत्ति देख कर घमंडी मत बनिए। जब इस शरीर से आत्मा निकल जाती हैं तो सबसे शक्तिशाली मनुष्य का देह भी धरती में दाल दिया जाता है, और उसके ऊपर घास उग जाती है।

64.कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥अर्थ :
अपना सारा समय सोते हुए मत बिताइए। भगवान् को याद कीजिये, क्योंकि यमराज के आने पर (अर्थात मृत्यु के समय ), बिन आत्मा का यह शरीर उस तरह होगा, जैसे बिना तलवार के म्यान।

65.कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥अर्थ :
जो लोग गुरु और भगवान् को अलग समझते हैं, वे सच नहीं पहचानते। अगर भगवान् अप्रसन्न हो जाएँ, तो आप गुरु की शरण में जा सकते हैं। लेकिन अगर गुरु क्रोधित हो जाएँ, तो भगवान् भी आपको नहीं बचा सकते।

66.कबीरा तेरी झोपडी, गल कटीयन के पास ।
जैसी करनी वैसे भरनी, तू क्यों भया उदास ॥अर्थ :
कबीर ! तेरा घर कसाई के पास है तो क्या ? उसकी हरकतों के लिए तू ज़िम्मेदार नहीं है। अर्थात, अपने कर्मों का फल सबको खुद ही भुगतना पड़ता है।

67.कबीरा यह तन जात है , सके तो ठौर लगा |
कई सेवा कर साधू की , कई गोविन्द गुण गा ||अर्थ :
हर व्यक्ति कि मृत्यु तो निश्चित है। इसीलिए अपना जीवन काल उचित एवं लाभकारी कामों में लगाना चाहिए, जैसे कि साधुओं की सेवा और भगवान् कि भक्ति।

68.कहे कबीर कैसे निबाहे , केर बेर को संग ।
वह झूमत रस आपनी, उसके फाटत अंग ॥अर्थ :
कबीर कहते हैं कि विभिन्न प्रकृति के लोग एक साथ नहीं रह सकते। उदाहरण के लिए, केले और बेर का पेड़ साथ नहीं उग सकते, क्योंकि जब हवा से बेर का पेड़ हिलेगा तो उसके काँटों से केले के पत्ते नष्ट हो जायेंगे।

69.करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी दिन रात ।
कूकर सम भूकत फिरे, सुनी सुनाई बात ॥अर्थ :
अज्ञानी व्यक्ति काम कम और बातें अधिक करते हैं। ऐसे लोग खुद अपना तर्क रखने के बजाय सुनी सुनाई बातों को ही रटते रहते हैं।

70.केसों कहा बिगडिया, जे मुंडे सौ बार ।
मन को काहे न मूंडिये, जा में विशे विकार ॥अर्थ :
जो लोग धार्मिक कारणों से बार-बार मुंडन करते हैं, कबीर उनसे पूछतें हैं , कि बालों को किस बात की सज़ा दे रहे हो, जो उन्हें निरंतर मुंडाते रहते हो? इसकी जगह, अपने मन को साफ़ करो, जिसमे बुराईयाँ भरी हुई हैं। अर्थात, अपने विचारों पर ध्यान दो, केवल अनुष्ठानों और क्रियायों पर नहीं।

71.खाय पकाय लूटाय ले, करि ले अपना काम ।
चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥अर्थ :
मनुष्य को इस जीवन में अपनी शक्ति और साधन का भरपूर प्रयोग करना चाहिए - अपने कामों के लिए, दूसरों कि सहायता के लिए और परोपकार के कार्यों में। इस तरह उसे अपना जीवन सार्थक करना चाहिए, क्योंकि संसार से जाते समय एक भी वस्तु उसके साथ नहीं जायेगी।

72.कोइ एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूं खिसै, चोर न सकई लागि ॥अर्थ :
जो हर पहर जागता रहता है, उसके कपड़े और बर्तन कोई नहीं ले जा सकता। अर्थात, हमेशा सचेत और सावधान रहना चाहिए।

73.कुटिल बचन सबसे बुरा , जासे हॉट न हार |
साधू बचन जल रूप है , बरसे अमृत धार ||अर्थ :
कटु शब्दों और तानों से बदन में जलन की भावना होती है, जब कि मधुर शब्द सुनकर ठंडक पहुँचती है, और ऐसा लगता है कि जैसे अमृत बरस रहा हो ।

74.क्या मुख ली बिनती करो , लाज आवत है मोहि |
तुम देखत ओगुन करो , कैसे भावो तोही ||अर्थ :
हे भगवान् ! तुझसे प्रार्थना करते हुए मुझे शर्म आती है। क्या तुम मेरी गलतियों और मेरे पापों के बावजूद मुझे अपना सकते हो?

75.मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।अर्थ :
दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं, पर जब वह नहीं मिलता तब वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।

76.माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥अर्थ :
मिट्टी कुम्हार से कहती है कि आज तो तू मुझे पैरों के नीचे रोंद रहा है, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा, कि तू मेरे तले होगा | अर्थात, जीवन में मनुष्य चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर मिट्टी हो जाता है |

77.माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहि ।
मनुआ तो चहुं दिश फिरे, यह तो सुमिरन नाहि ॥अर्थ :
माला घुमाने से, या मंत्रो का उच्चारण करने से ध्यान नहीं होता। अर्थात ध्यान होता है मन को स्थिर करने से, क्रियाएं करने से नहीं।

78.मन उन्मना न तोलिये, शब्द के मोल न तोल ।
मुर्ख लोग न जान्सी, आपा खोया बोल ॥अर्थ :
अशांत या व्याकुल अवस्था में किसी के कही हुई बातों का अर्थ नहीं निकलना चाहिए। ऐसी हालत में व्यक्ति शब्दों का सही अर्थ समझने में असमर्थ होता है। मूर्ख लोग इस तथ्य को नहीं जानते, इसलिए किसी भी बात पर अपना संतुलन खो देते हैं ।

79.मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग ।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग ॥अर्थ :
रात दिन भगवान के नाम जपने, और रोज़ साधुओं के साथ संगत करने के बावजूद, कुछ लोगों पर भक्ति का रंग नहीं चढ़ता, क्योंकि वे अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाते।

80.न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥अर्थ :
बार बार नहाने से कुछ नहीं होता, अगर मन साफ़ न हो। अर्थात, बाहरी उपस्थिति से ज़यादा महत्वपूर्ण है मानव का चरित्र और उसका स्वभाव। उदाहरण के लिए, मछली सारी ज़िन्दगी पानी में रहती है, पर 'धुल' नहीं पाती - उसमे बदबू फिर भी आती है।

81.पांच पहर धंधा किया , तीन पहर गया सोय |
एक पहर भी नाम बिन , मुक्ति कैसे होय ||अर्थ :
दिन के आठ पहर में, आप पाँच पहर काम करते हैं, और तीन पहर सोते हैं। अगर ईश्वर को याद करने के लिए आपके पास समय ही नहीं है, तो आपको मोक्ष कैसे मिल सकता है ?



82.पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़ ।
घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाए संसार ॥अर्थ :
कबीर कहते हैं कि अगर पत्थर की मूर्ती की पूजा करने से भगवान् मिल जाते तो वे पहाड़ कि पूजा कर लेते। लेकिन मूर्तियों से महत्वपूर्ण वो चक्की है, जिसमे पिसा हुआ अन्न लोगों का पेट भरता है। अर्थात परम्पराओं और प्रथाओं के साथ-साथ अपने काम का भी ध्यान रखना चाहिए।

83.पढी गुनी पाठक भये, समुझाया संसार ।
आपन तो समुझै नहीं, वृथा गया अवतार ॥अर्थ :
कुछ लोग बहुत पढ़-लिखकर दूसरों को उपदेश देते हैं, लेकिन खुद अपनी सीख ग्रहण नहीं करते। ऐसे लोगों की पढ़ाई और ज्ञान व्यर्थ है।

84.पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात ।
अब तो मन हंसा, मोती चुनि-चुनि खात ॥अर्थ :
कबीर कहते हैं कि मनुष्य का मन एक कौआ की तरह होता है, जो कुछ भी उठा लेता है। लेकिन एक ग्यानी का मन उस हंस के समान होता है जो केवल मोती खाता है।

85.पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान ।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान ॥अर्थ :
पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी गंध दूर तक फैल जाती है। अर्थात, इसे छुपाना असंभव है।

86.पहले शब्द पहचानिये, पीछे कीजे मोल ।
पारखी परखे रतन को, शब्द का मोल ना तोल ॥अर्थ :
पहले शब्दों का अर्थ पूरी तरह से समझिये। उसके बाद ही उनके कारण या महत्व का विश्लेषण करिये। जौहरी भी केवल रत्नो को तोल सकता है, शब्दों को मापना बहुत कठिन है।

87.फल कारन सेवा करे , करे ना मन से काम |
कहे कबीर सेवक नहीं , चाहे चौगुना दाम ||अर्थ :
कुछ लोग भगवान् का ध्यान फल और वरदान की आशा से करते हैं, भक्ति के लिए नहीं। ऐसे लोग भक्त नहीं, व्यापारी हैं, जो अपने निवेश का चैगुना दाम चाहते हैं।

88.प्रेम न बड़ी उपजी , प्रेम न हात बिकाय |
राजा प्रजा जोही रुचे , शीश दी ले जाय ||अर्थ :
प्रेम न खरीदा जा सकता है, और न ही इसकी फ़सल उगाई जा सकती है। प्रेम के लिए विनम्रता आवश्यक है, जाहे राजा हो या कोई सामान्य व्यक्ति।

89.प्रेम प्याला जो पिए , शीश दक्षिणा दे|
लोभी शीश न दे सके , नामप्रेम का ले ||अर्थ :
जो प्रेम का अनुभव करना चाहता है, उसे अपना जीवन न्योछावर करने के लिए तैयार होना चाहिए। लालची और स्वार्थी मनुष्य कुछ भी त्यागने में असमर्थ हैं - वे प्रेम की कँवल बातें कर सकते हैं, अनुभव नहीं।

90.प्रेमभाव एक चाहिए , भेष अनेक बनाय |
चाहे घर में वास कर , चाहे बन को जाए ||अर्थ :
व्यक्ति हे हृदय में प्रेम होना चाहिए, उसका रूप या अवस्था चाहे जो भी हो - चाहे वो महल में रहे या जंगल में।

91.रात गवई सोय के दिवस गवाया खाय |
हीरा जन्म अनमोल था , कौड़ी बदले जाय ||अर्थ :
जो व्यक्ति इस संसार में बिना कोई कर्म किए पूरी रात को सोते हुए और सारे दिन को खाते हुए ही व्यतीत कर देता है वह अपने हीरे तुल्य अमूल्य जीवन को कौड़ियों के भाव व्यर्थ ही गवा देता है ।

92.साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाही ।
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाही ॥अर्थ :
संत केवल भाव व ज्ञान की इच्छा रखते हैं। उन्हें धन का कोई लोभ नहीं होता। जो व्यक्ति साधू बनकर भी धन-संपत्ति के पीछे भागता है, वह संत नहीं हो सकता।

93.सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार ।
लोचन अनँत उघारिया, अनँत दिखावनहार ।।अर्थ :
सद्गुरु की महिमा अनन्त है और उनके उपकार भी अनन्त हैं। उन्होंने मेरी अनन्त दृष्टि खोल दी जिससे मुझे उस अनन्त प्रभु का दर्शन प्राप्त हो गए।

94.सतगुरु मिला तो सब मिले, ना तो मिला न कोय ।
मात पिता सूत बान्धवा, यह तो घर घर होय ॥अर्थ :
जिसने एक सच्चा गुरु पा लिया, उसने मानो सारा संसार पा लिया। माता, पिता, बच्चे और दोस्त तो सभी के होते हैं, लेकिन गुरु का भाग्य सबको नहीं मिलता।

95.श्रम से ही सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नाही ।
सीधे ऊँगली घी जमो, कबसू निकसे नाही ॥अर्थ :
जिस तरह जमे हुए घी को सीधी ऊँगली से निकलना असम्भव है, उसी तरह बिना मेहनत के लक्ष्य को प्राप्त करना सम्भव नहीं है ।

96.सोना सज्जन साधू जन , टूट जुड़े सौ बार |
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के , एइके ढाका दरार ||अर्थ :
सोने को अगर सौ बार भी तोड़ा जाए, तो भी उसे फिर जोड़ा जा सकता है। इसी तरह भले मनुष्य हर अवस्था में भले ही रहते हैं। इसके विपरीत बुरे या दुष्ट लोग कुम्हार के घड़े की तरह होते हैं जो एक बार टूटने पर दुबारा कभी नहीं जुड़ता।

97.सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥अर्थ :
अच्छे समय में भगवान् को भूल गए, और संकट के समय ही भगवान् को याद किया। ऐसे भक्त कि प्रार्थना कौन सुनेगा ?

98.सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भौजल माहिं ।
आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥अर्थ :
हे भगवान् ! मुझे याद रखना। मैं इस सागर-रुपी जीवन में बह रहा हूँ, और अगर आपका सहारा न मिला, तो मैं अवश्य ही डूब जाऊंगा।

99.तन की जाने मन की जाने, जाने चित्त की चोरी ।
वह साहब से क्या छिपावे, जिनके हाथ में डोरी ॥अर्थ :
भगवान तो सर्व व्यापी एवं सर्वज्ञ है। वह तुम्हारे मन में छुपी भावनायों को भी जानते हैं। जो ईश्वर सारे संसार को चलाता है, उससे कभी कुछ छिपा नहीं रहता।

100.बैद मुआ रोगी मुआ , मुआ सकल संसार |
एक कबीरा ना मुआ , जेहि के राम आधार ||अर्थ :
बीमार हो या चिकित्सक, दोनों की मौत निश्चित है। इस संसार में हर व्यक्ति का का मरना निश्चित है, लेकिन जिसने राम का सहारा ले लिया हो, वो अमर हो जाता है।



कबीर के दोहे का महत्व 


दोस्तों कबीर दास के दोहे का बहुत अधिक महत्व है। मेरे हिसाब से हम सभी को कबीर के दोहो का पाठ करना चाहिए। इनका हर एक  दोहा हमे जिंदगी को कैसे जीना है वो सिखाता है। दोस्तों मुझे तो इन दोहो को पढ़कर बहुत कुछ सीखने को मिला। मुझे पूरी उम्मीद है की अगर आप लोग भी इन दोहो को अच्छे से पढ़ेंगे और समझेंगे तो आपके जीवन में भी परिवर्तन अवस्य आएगा




दोस्तों मुझे  पुरी उम्मीद है की आप सभी को हमारा यह article जो की कबीर दास के दोहे  के ऊपर लिखा गया है पसंद आया होगा। अगर आपको वाकई हमारा यह post पसंद आया तो इसे अपने दोस्तों के साथ अवस्य share करे।


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तुलसीदास के दोहे 


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3 σχόλια

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admin
15 September 2020 at 07:38 ×

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admin
24 September 2020 at 02:24 ×

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